Monday 15 February 2016

बेटे की चाह और बहू पर अंकुश


डॉ.संजीव, लखनऊ
उत्तर प्रदेश जल्द ही नयी जनसंख्या नीति के साथ देश के समक्ष अगले कुछ वर्षों की पटकथा लिखेगा। नीति के स्तर पर बड़े बदलाव की तैयारी भले ही की जा रही है किन्तु चूल्हे तक मानसिक बदलाव आजादी के 68 साल बाद भी नहीं आ सका है। आज भी परिवार कल्याण पर बेटे की चाह और बहू पर अंकुश का फलसफा हावी है। आज भी बहुएं बेटे की आस में बच्चे पैदा करती जाती हैं और कई बार तो सासें तय करती हैं कि वे परिवार कल्याण का कौन सा साधन इस्तेमाल करेंगी।
उत्तर प्रदेश में परिवार कल्याण कार्यक्रमों की तमाम कोशिशें प्रभावी रूप से सफल नहीं हो रही हैं। पूरे देश में जहां प्रजनन दर 2.1 है, वहीं उत्तर प्रदेश आज भी 3.1 प्रजनन दर के साथ आगे बढ़ रहा है। यह स्थिति तब है, जबकि प्रदेश में परिवार कल्याण कार्यक्रमों को लागू करने व उनके प्रभावी अनुश्रवण के लिए अलग से महानिदेशक सहित पूरा महकमा सक्रिय है। परिवार कल्याण कार्यक्रमों व परियोजनाओं के विविधीकरण के लिए गठित स्टेट इनोवेशन्स इन फैमिली प्लानिंग सर्विसेज प्रोजेक्ट एजेंसी (सिफ्सा) ने हाल ही में प्रदेश में महिलाओं, सासों, आशा कार्यकर्ताओं व एएनएम के बीच एक सर्वे कर स्टेटस रिपोर्ट तैयार की है। यह रिपोर्ट तमाम चौंकाने वाले तथ्य सामने लाती है। रिपोर्ट के मुताबिक उत्तर प्रदेश में महज 37.3 फीसद महिलाएं ही गर्भनिरोधक साधनों का इस्तेमाल करती हैं। रिपोर्ट के मुताबिक संवादहीनता की स्थितियों के कारण भी प्रदेश परिवार कल्याण लक्ष्यों की प्राप्ति नहीं कर पा रहे है। परिवारों के अंदर निर्णय क्षमता में बच्चे पैदा करने वाली यानी बहू की भूमिका नगण्य है।
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बहू की सुनवाई बस दो फीसद
सर्वे के मुताबिक केवल चार फीसद सासें चाहती हैं कि बच्चों की पढ़ाई में मां की बात सुनी जाए। घरवालों की सेहत पर फैसला लेना हो तो बस औसतन दो फीसद बहुओं की ही सुनी जाती है। बरेली में सर्वाधिक आठ फीसद और मऊ में तीन फीसद बहुओं की सुनी जाती है, वहीं मैनपुरी व पीलीभीत में यह आंकड़ा 1.7 फीसद मिला। 14 फीसद सासों ने गर्व के साथ स्वीकार किया कि घर की सेहत से जुड़े फैसले वे करती हैं। परिवार कल्याण के साधन इस्तेमाल करने के लिए अधिकांश बहुओं को आज भी सास की अनुमति लेनी पड़ती है। सर्वे के मुताबिक तीस फीसद सासों ने बहुओं को अनुमति दी तो उन्होंने परिवार कल्याण के साधन इस्तेमाल किये। नारी सशक्तीकरण के इस दौर में भी बेटे की चाह सास की ओर से कुछ ज्यादा ही सामने आती है। 85 फीसद सासें चाहती हैं कि उनके बेटे-बहू को कम से कम एक पुत्र की प्राप्ति जरूर हो। इनमें भी 36 प्रतिशत बेटा होने तक बच्चे पैदा करते रहने की पक्षधर मिलीं, भले ही इस कारण घर व देश की आबादी कितनी भी बढ़ जाए।
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15 फीसद परिवार कल्याण से दूर
परिवार नियोजन की तमाम कोशिशों के बावजूद उत्तर प्रदेश के 15 फीसद से अधिक दंपती परिवार कल्याण की किसी भी पद्धति का इस्तेमाल नहीं करते हैं। नियमित तौर पर 36 प्रतिशत दंपती ही परिवार कल्याण तरीकों का इस्तेमाल कर रहे हैं। इनमें भी महज 14.5 फीसद ने नसौंदी कराई। सूबे में नसबंदी मूल रूप से महिलाओं के भरोसे ही है क्योंकि 14.5 में से पुरुष सिर्फ 0.2 प्रतिशत ही हैं। नसबंदी के स्थान पर अस्थायी परिवार कल्याण साधनों का इस्तेमाल करने वालों में से 52 फीसद से अधिक दंपतियों के तीन या तीन से अधिक बच्चे मिले। इनमें से 70 प्रतिशत तो अब भी नसबंदी कराने को तैयार नहीं हैं। जिन 14.5 फीसद ने नसबंदी को चुना, उन्होंने निजी क्षेत्र की बजाय सरकारी अस्पताल में ऑपरेशन कराने को वरीयता दी। इनमें भी 28 फीसद आशा या एएनएम कार्यकर्ताओं के साथ गयी थीं। अन्य जिलों में 93 फीसद ने सरकारी अस्पताल में ऑपरेशन कराया, बस एटा एकमात्र जिला था, जहां 23 फीसद महिलाएं निजी अस्पतालों में नसबंदी कराने पहुंचीं। पता चला कि आधे से अधिक दंपतियों ने गर्भनिरोधक गोली या कंडोम जैसे साधनों का इस्तेमाल शुरू तो किया किन्तु थोड़े ही दिनों में बंद कर दिया। इनमें 43.5 प्रतिशत ने बच्चे की चाहत में ऐसा किया, वहीं 10.6 फीसद गर्भनिरोधकों के इस्तेमाल से संतुष्ट नहीं थे। 6.5 फीसद का मानना था कि इस्तेमाल के बाद भी गर्भनिरोधक प्रभावी नहीं हुए, इसलिए उन्होंने बंद कर दिया।
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अजब-गजब डर
नसबंदी न कराने के पीछे भी अजब-गजब डर सामने आए हैं। 31 प्रतिशत दंपति तो परिवार पूरा होने के बाद भी नसबंदी जैसा स्थायी गर्भनिरोधन रास्ता अख्तियार नहीं करना चाहते। इनमें से 23 प्रतिशत तो नसबंदी की प्रक्रिया से ही डरते हैं। उनका यह डर कम करने की कोशिशें भी सफल नहीं होतीं। 13 प्रतिशत को डर था कि नसबंदी के साथ उनकी क्षमता में कमी आ जाएगी और वे शारीरिक रूप से कमजोर हो जाएंगे। कुछ को तो इस कारण नपुंसक होने का भी डर सता रहा था। 13 प्रतिशत महिलाएं तो चाहकर भी नसबंदी नहीं करा पा रही थीं, क्योंकि उनके पति व अन्य घर वालों ने इसका विरोध किया था। पांच प्रतिशत महिलाओं ने नसबंदी न कराने के लिए धार्मिक आधार को कारण करार दिया।
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महिला नसबंदी से बचने के बहाने
-ऑपरेशन से कमजोरी व बीमारी
-ऑपरेशन से लगने वाला डर
-पति और परिवार का विरोध
-धर्म को आधार बनाकर विरोध
-बच्चे का बहुत छोटा होना
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पुरुष नसबंदी से बचने के बहाने
-ऑपरेशन के बाद काम न कर पाना
-पत्नी का विरोध व ऑपरेशन से डर
-पद्धति के बारे में जानकारी न होना
-कमजोरी और नपुसंकता का खतरा
-डॉक्टर की अनुपलब्धता का संकट
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छोटी सी मुलाकात
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पुरुषों को जोडऩा चुनौती, होंगी 7500 नयी भर्तियां
परिवार कल्याण कार्यक्रमों से पुरुषों को जोडऩा स्वास्थ्य विभाग के लिए सबसे बड़ी चुनौती है। प्रमुख सचिव (स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण) अरविंद कुमार के मुताबिक इसके लिए प्रदेश में 7500 पुरुष स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं की भर्ती प्राथमिकता के आधार पर की जाएगी।
-परिवार कल्याण के मामले में उत्तर प्रदेश की स्थिति कैसी है?
--हम सकल प्रजनन दर के मामले में राष्ट्रीय औसत से काफी पीछे हैं। पिछले कुछ वर्षों में नसबंदी के मामलों में कमी आई है। पहले शिविर लगाकर नसबंदी होती थी, जिनमें एक साथ 60-70 नसबंदी तक हो जाती थीं। न्यायालय के आदेश के बाद एक सर्जन के एक दिन में तीस से अधिक ऑपरेशन पर रोक लगी है। वर्ष 2014 में जहां 4933 पुरुषों व 1,36,627 महिलाओं ने नसबंदी कराई थी, वहीं 2015 में यह संख्या घटी और 2,576 पुरुषों व 1,07,531 महिलाओं ने नसबंदी कराई। अब नसबंदी के साथ परिवार कल्याण के अन्य संसाधनों पर जोर दिया जा रहा है और हमें इस दिशा में सफलता भी मिल रही है।
-कार्यक्रम क्रियान्वयन में सबसे बड़ी बाधा क्या है?
--हमने आंकलन किया तो पाया है कि आशा का योगदान पर्याप्त नहीं हो पा रहा है। अब आशा व एएनएम के योगदान को बढ़ाने व प्रशिक्षण पर जोर देने की पहल हो रही है। इसके लिए महिलाओं की काउंसिलिंग तो आशा व एएनएम से हो जाती है, पुरुषों की काउंसिलिंग नहीं हो पाती। पुरुष ही इस दिशा में सबसे बड़ी बाधा बन रहे हैं। इसके लिए प्रदेश में 7500 पुरुष बेसिक हेल्थ वर्कर भर्ती किये जाएंगे। जल्द ही एक पारदर्शी प्रक्रिया के माध्यम से यह काम होगा।
-प्रभावी परिवार कल्याण कार्यक्रमों के लिए क्या प्रयास हो रहे हैं? 
-नसबंदी घटने के बाद हमारा जोर परिवार नियोजन के अन्य तरीकों पर है। प्रसव के तुरंत बाद परिवार नियोजन के तरीकों के इस्तेमाल की प्रक्रिया में तेजी आई है। वर्ष 2014 में 24,406 महिलाओं ने प्रसव के तुरंत बाद कॉपर-टी लगवाई, वहीं 2015 में यह संख्या 74,100 पहुंच गयी। इसके बावजूद अभी मात्र 20 फीसद महिलाएं ही इसके दायरे में आयी हैं। अब इसे बढ़ाकर परिवार कल्याण लक्ष्य प्राप्त करने की रणनीति बनाई गयी है। इसके लिए आशा व एएनएम को भी विशेष रूप से प्रशिक्षित किया जा रहा है।
-क्या लक्ष्य निर्धारित किये हैं और क्या रणनीति बनाई है?
--प्रजनन दर को 2.1 तक पहुंचाना ही सीधा लक्ष्य है। सारी कोशिशें इसी दिशा में हो रही हैं। इसके लिए अधिकारियों को सक्रिय करने के साथ तकनीक के अधिकाधिक इस्तेमाल पर जोर दिया जा रहा है। पांच जिलों में एम-सेहत कार्यक्रम शुरू किया गया है, जिसमें विवाह के साथ ही दंपती की मॉनीटङ्क्षरग व काउंसिलिंग शुरू होगी। इसके अलावा अन्य दंपतियों के रेकार्ड भी ऑनलाइन होंगे। पांच जिलों में सफलता के बाद इसे सभी जिलों में लागू कर दिया जाएगा।
-उत्तर प्रदेश की विविधता को देखते हुए क्या कार्ययोजना है?
--हम अपनी जनसंख्या नीति बदल रहे हैं। इसके ड्राफ्ट को अंतिम रूप दिया जा रहा है। फरवरी माह में ही मुख्य सचिव के समक्ष इसका प्रारंभिक प्रदर्शन होगा। इसमें बालिका सुरक्षा पर सर्वाधिक जोर दिया जाएगा। महिला सशक्तीकरण के साथ निर्णय लेने में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने पर भी जोर होगा। नई जनसंख्या नीति भी निश्चित रूप से परिवार कल्याण व जनसंख्या नियोजन की दिशा में सार्थक कदम साबित होगी। 

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