Monday 19 October 2015

निजी अस्पतालों में गरीबों के लिए आरक्षित हों बेड


वर्ष 1988 में दुनिया का पहला सुपरस्पेशलिटी अस्पताल भारत में बनाने वाले डॉ.नरेश त्रेहन देश-दुनिया में तमाम सम्मान व पुरस्कार जीत चुके हैं। वे विदेश जाकर सीखने के दौर से आगे निकलकर विदेशियों को सिखाने की इच्छाशक्ति के साथ चिकित्सा क्षेत्र में नवसृजन के हिमायती हैं। उनका मानना है कि भारत जैसे बड़े देश में सरकार व निजी क्षेत्र मिलकर ही सबको सेहत की सुरक्षा मुहैया करा सकते हैं। दैनिक जागरण के विशेष संवाददाता डॉ.संजीव से बातचीत में उन्होंने कहा कि हर निजी अस्पताल में गरीबों के लिए बेड आरक्षित होने चाहिए और उनका नियंत्रण भी सरकार के हाथ में होना चाहिए।
-चिकित्सा क्षेत्र में उत्तर प्रदेश की क्या स्थिति है?
--हर जगह व विधा की अपनी एक यात्रा होती है। चिकित्सा क्षेत्र की भी अपनी यात्रा है। पहले चिकित्सक व मरीज के बीच अलग तरह का रिश्ता था। तकनीक बढ़ी तो 70 के दशक में नर्सिंग होम बढऩे शुरू हुए। तब सरकारी अस्पताल होने के बावजूद 80 प्रतिशत लोग नर्सिंग होम में जाते थे। 80 के दशक में चेन्नई से अपोलो अस्पतालों के रूप में निजी क्षेत्र की एक अलग पहल हुई। उसके बाद 1988 में हमने दुनिया का पहला सुपरस्पेशलिटी अस्पताल बनाया। दिल्ली में बने उस अस्पताल में सिर्फ हृदय रोगियों का इलाज होता था। उस समय दिल्ली में कोई काम का अस्पताल ही नहीं था। देखा जाए तो आज उत्तर प्रदेश की स्थिति 1988 वाली ही है।
-यह स्थितियां क्यों पैदा हुईं?
--उत्तर प्रदेश में मरीज और चिकित्सक के बीच भरोसे की कमी पैदा हो गयी है। यह भरोसा पैदा किये जाने की जरूरत है। जिस दिन आपस में भरोसा पैदा हो गया, मरीजों को लगने लगा कि हम सही हाथों में हैं, हमारा इलाज ठीक से हो रहा है, सारी समस्याएं दूर हो जाएंगी। जो सरकारी अस्पताल अच्छा काम कर रहे हैं, वे ओवर-लोडेड हैं। इस ओर ध्यान दिया जाना चाहिए। सरकार चाह ले और तय कर ले कि जनता को बचाना हो तो तुरंत कर सकती है, किन्तु अभी तक इस ओर प्रभावी ढंग से सोचा ही नहीं गया।
-सरकारी अस्पताल कारगर क्यों नहीं साबित हो रहे?
 --तकनीक में पिछडऩे, मरीजों की संख्या कुछ अस्पतालों मं ही ज्यादा बढऩे और उपचार का वातावरण न बनने के कारण ऐसा हो रहा है। लखनऊ का एसजीपीजीआइ हो या केजीएमयू और कानपुर का जीएसवीएम मेडिकल कालेज, इन सभी स्थानों पर अच्छा इलाज होता है किन्तु अत्यधिक मरीजों के कारण समस्या हो रही है। वहां तकनीक का प्रयोग नहीं हो रहा है और सरकारें भी इस ओर ध्यान नहीं देतीं। यही कारण है कि इन अस्पतालों से बाहर निजी क्षेत्र में आकर वही डॉक्टर बहुत अच्छा काम करते हैं। बीस करोड़ आबादी के लिए एसजीपीजीआइ या केजीएमयू व जीएसवीएम जैसे मिड-लेवल अस्पताल प्रभावी नहीं हो सकते। यहां भी अमेरिका जैसा इलाज होना चाहिए।
-इन परिस्थितियों में आम आदमी का इलाज कैसे हो?
--पहला चरण तो बचाव का होता है। अपने आसपास सफाई के साथ बचाव के पुख्ता प्रबंध होने चाहिए। इसके बाद सरकारी अस्पतालों के साथ ही हर निजी अस्पताल में गरीबों के लिए बेड आरक्षित किये जाएं। हम अपने अस्पताल में इस नियम का पालन करते हैं। सभी अस्पतालों में बेड आरक्षित करने के बाद उनका नियंत्रण सरकार अपने हाथ में रखे। कम्प्यूटर से साफ पता चले कि कहां बेड भरा है, कहां खाली। एक फोन नंबर हो, जहां जनता फोन करे तो तुरंत पता चल जाए और सीधे उसी अस्पताल के खाली बेड पर मरीज भेज दिया जाए। फिर अस्पताल के अंदर कोई भेदभाव न हो, तो गंभीर मरीजों के मामले में समस्या का बड़े स्तर तक समाधान हो जाएगा।
-सरकार के स्तर पर प्रयासों को आप पर्याप्त मानते हैं?
--देखिये, सरकारी प्रयास पर्याप्त होते तो ये स्थितियां ही क्यों पैदा होतीं। हमें राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना का प्लेटफार्म और मजबूत करना चाहिए। अभी तक इस बीमा योजना में खर्च की सीमा 30 हजार रुपये थी। सरकार से इस पर चर्चा कर इसे बढ़ाकर 50 हजार करने पर सहमति बनी है। इसे राज्यों के स्तर पर लागू किया जाना चाहिए। इसके अलावा बड़े ऑपरेशनों के लिए दो लाख रुपये तक के खर्च को इस बीमा योजना का हिस्सा बनाया जाए। मेरी केंद्र सरकार से बात हुई है और उम्मीद है कि अगले बजट में इस बाबत केंद्र सरकार घोषणा कर देगी।
-देश में डॉक्टरों की भी तो बहुत कमी है?
-यह सही है कि देश में डॉक्टरों की संख्या अपेक्षा से बहुत कम है। हमें पांच लाख डॉक्टरों की तुरंत जरूरत है किन्तु हर साल पढ़कर सिर्फ 40 हजार ही निकलते हैं। जो निकलते हैं, उनकी गुणवत्ता भी स्तरीय नहीं है। चिकित्सा शिक्षा की गुणवत्ता कुछ कालेजों में सिमट कर रह गयी है। निजी कालेज तेजी से खोल दिये गए और वहां ठीक से पढ़ाया तक नहीं जाता। नियम भी ऐसे हैं कि गुणवत्तापूर्ण इलाज करने वाले चिकित्सा संस्थान चाहें तो मेडिकल कालेज खोल ही नहीं सकते। नियमों को बदलें तो मैं स्वयं भी देश में कुछ बड़े मेडिकल कालेज खोलने की दिशा में पहल कर सकता हूं। ये दावा है कि उनसे गुणवत्तापूर्ण डॉक्टर पढ़कर निकलेंगे।
-भारतीय चिकित्सा पद्धतियों के प्रयोग पर आपकी क्या राय है?
--देखिये, विदेशी इलाज बहुत महंगा है। कई वर्षों तक हम पश्चिम की नकल ही करते रहे हैं। हमने नयी दवाएं तो नहीं ही बनायीं, अपनी चिकित्सा पद्धतियों की भी रक्षा नहीं की। समय आ गया है कि हम आधुनिक व प्राचीन चिकित्सा पद्धतियों को मिलाकर काम करें। आयुर्वेद इस दिशा में बेहद प्रभावी साबित हो सकता है। इस दिशा में शोध होने चाहिए। ऐसी स्थितियां पैदा हों कि लोग भारत सीखने आएं, हमें उनसे सीखने न जाना पड़े।

No comments:

Post a Comment