Friday 28 August 2015

आज भी कच्चे घरों में रहने को मजबूत एक तिहाई ग्रामीण

-झोपडिय़ों में जिंदगी बिताने को मजबूर 31.82 प्रतिशत
-फिर भी राष्ट्रीय औसत की तुलना में संतोष की स्थिति
राज्य ब्यूरो, लखनऊ
सपनों के घर में रहना किसे अच्छा नहीं लगता, पर उत्तर प्रदेश में आज भी एक तिहाई ग्र्रामीण कच्चे घरों में रहने को विवश हैं। 2011 की जनगणना का सामाजिक-आर्थिक विश्लेषण यूपी को बस इतना संतोष तो दिलाता है कि राष्ट्रीय औसत की तुलना में स्थिति कुछ ठीक है।
देश के कुल 17 करोड़ 91 लाख 64 हजार 759 ग्र्रामीण घरों में से 2 करोड़ 59 लाख 75 हजार 460 ग्र्रामीण घर उत्तर प्रदेश में हैं। इनमें से महज 68.13 प्रतिशत (1 करोड़ 76 लाख 96 हजार 167) लोगों के घर पक्के बने हैं। शेष 82 लाख 65 हजार 49 यानी 31.82 प्रतिशत लोग आज भी कच्चे घरों में रहने को मजबूर हैं। कच्चे घरों में भी हर किसी को मजबूत व महफूज गर मुहैया नहीं है। 21 लाख 33 हजार 711 लोग घास-फूस व बांस से बने घरों में रह रहे हैं, तो 1 लाख 45 हजार 577 लोग प्लास्टिक व पॉलीथिन के बने घरों में रहने को विवश हैं। सर्वाधिक 54 लाख 85 हजार 216 लोग मिïट्टी व कच्ची ईंट के बने घरों में रहते हैं तो 1 लाख 62 हजार 140 लोगों का आशियाना लकड़ी का बना है। पक्के घरों में रहने वालों में से भी आलीशान घर महज 3 लाख 68 हजार 194 लोगों को नसीब हैं, जबकि पक्की दीवारों पर टीन शेड डालकर बने घरों की संख्या 1 लाख 24 हजार 485 है। सर्वाधिक एक करोड़ 68 लाख 92 घर पक्की ईंटों के बने हैं, तो 2 लाख 98 हजार 22 परिवार कंक्रीट के घरों में रहते हैं। इसे ग्र्रामीण भारत की विडंबना ही कहेंगे कि 65 लाख 88 हजार 500 लोग आज भी एक कमरे के घर में रहने को विवश हैं। सामान्यत: माना जाता है कि ग्र्रामीण क्षेत्रों में टूटी-फूटी ही सही, अपनी छत होती है किन्तु उत्तर प्रदेश में आज भी 2 लाख 35 हजार 50 ग्र्रामीण परिवार किराये के घर में रह रहे हैं। यह स्थिति राष्ट्रीय औसत की तुलना में अच्छी मानी जा सकती है, क्योंकि राष्ट्रीय स्तर पर 3.45 प्रतिशत ग्र्रामीण किराए के घरों में रह रहे हैं, वहीं उत्तर प्रदेश में यह संख्या महज 0.90 प्रतिशत है।

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